उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक के चेहरे बदले जाने की चर्चाएं जोरों पर

देहरादून,  उत्तराखंड विधानसभा चुनाव को अब आठ महीने ही बाकी हैं। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों के भीतर भावी मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर चिक-चिक चल पड़ी है। फर्क इतना है कि भाजपा में यह सब चुपके-चुपके हो रहा है, जबकि कांग्रेस में खुलेआम। कांग्रेस में कलाकार मंच पर हैं, तो भाजपा में पर्दे के पीछे। भाजपा में चुनावी चेहरे का शिगूफा छोड़ने वाले तीन किस्म के लोग हैं। पहले तो वे जिन्हें अपने चेहरे की बनावट और जनता में इसकी खिंचावट पर जरूरत से ज्यादा भरोसा है। दूसरे वे लोग हैं जिन्हें चुनावी साल में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को लाना नागवारा गुजरा। तीसरे वे लोग हैं जिन्हें चार साल बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को लाने का औचित्य समझ में नहीं आया। यानी दोनों में गुणात्मक अंतर नहीं समझ पा रहे हैं। कुल मिलाकर तीसरी श्रेणी के लोगों की सोच व्यक्तिगत से ज्यादा सांगठनिक लग रही है।

अब सवाल यह उठता है कि चुनावी साल में तीरथ सिंह रावत को सरकार की बागडोर सौंपने का सीधा अर्थ यह नहीं है कि अगले चुनाव का चेहरा तीरथ ही होंगे। वैसे भी मुख्यमंत्री ही चुनाव में किसी भी सत्ताधारी पार्टी का स्वाभाविक चेहरा होता है। तीरथ के शुभाकांक्षी तो यह कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें मौका ही कहां मिला कुछ करने का। आते ही कुंभ और फिर प्रदेश में कोरोना की दूसरी लहर के प्रकोप से जूझते रहे। कोरोना पर काबू पाने के बाद अब वह कुछ कर दिखाएंगे। संगठन से यह चिंता भी उठ रही है कि अब कुछ कर दिखाने के लिए कितना समय बचा है और कितना बजट। चुनावी चेहरे की आवाज को पूरी तरह से असंतुष्टों की शरारत कह कर खारिज भी नहीं किया जा सकता है। इसके पीछे बेशक कुछ की महत्वाकांक्षा होगी, लेकिन कुछ जमीनी कारक भी काम कर रहे हैं। यह भी माना जा रहा है कि भाजपा के असम प्रयोग के बाद उत्तराखंड में पार्टी के अंदर और बाहर इस तरह के विमर्श ने जन्म लिया। भाजपा में समाहित कांग्रेसी धड़े के दिग्गजों की महत्वाकांक्षा को भी असम प्रयोग से पर लगे हैं।

वहीं कांग्रेस में चेहरे की लड़ाई नई नहीं है। विधानसभा चुनाव में उतरने से पहले भावी मुख्यमंत्री का चेहरा जनता को बता देना चाहिए, कांग्रेस में यह खुली और नेक राय रखने वाले नेता कोई और नहीं, बल्कि पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (हरदा) तथा उनके समर्थक हैं। प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति ने हरीश रावत को बुढ़ापे में इतना बहादुर बना दिया कि वह प्रदेश संगठन और हाईकमान की इच्छा के विपरीत चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की ताल ठोंक रहे हैं। पार्टी में उनके चाहने वालों का दावा है कि राज्य में मुख्यमंत्री के लिए उनसे बेहतर कोई और चेहरा नहीं है। प्रत्याशियों को जिताने का दमखम उनसे ज्यादा किसी के पास नहीं।

हालांकि वह स्वयं मुख्यमंत्री रहते हुए भी दो सीटों से विधायकी का चुनाव हार कर उत्तराखंड सियासत में अनोखी मिसाल बन चुके हैं। उनके समर्थकों का मानना है कि पहले भी दो बार हरदा के साथ धोखा हुआ। राज्य का पहला विधानसभा चुनाव उनके ही कंधे पर लड़ा गया, लेकिन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी को बना दिया गया। तीसरे विधानसभा चुनाव में भी हरदा ही सर्वाधिक विधायक जिता कर लाए, लेकिन मुख्यमंत्री बना दिया गया विजय बहुगुणा को। उस बार वह समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली में कोपभवन में चले गए थे। दोनों बार अधिकांश विधायक उनके लिए अड़े थे, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी नसीब नहीं हुई। इस बार वह पहले ही पत्ते खुलवाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री का चेहरा जनता को बताओ और चुनाव लड़ो। पिछले तजुर्बे को देखते हुए उम्र के इस पड़ाव में वह तीसरी बार किसी तिवारी या बहुगुणा के लिए कुर्सी सजाने के मूड में कतई नहीं हैं।

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